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चाणक्य नीति: चाणक्य के अनुसार ऐसे स्थान लक्ष्मी स्वयं निवास करती हैं।

जहां मूर्यों की पूजा नहीं होती, जहां अन्न आदि काफी मात्रा में इकट्ठे रहते हैं, जहां पति-पत्नी में किसी प्रकार की कलह, लड़ाई-झगड़ा नहीं, ऐसे स्थान पर लक्ष्मी स्वयं आकर निवास करने लगती है। ||21||

इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि जो लोग-देश अथवा देशवासी, मूर्ख लोगों की बजाय गुणवानों का आदर-सम्मान करते हैं, अपने गोदामों में भली प्रकार अन्न का संग्रह करके रखते हैं, जहां के लोगों में घर-गृहस्थी में लड़ाई-झगड़े नहीं, मतभेद नहीं, उन लोगों की संपत्ति अपने-आप बढ़ने लगती है। यहां एक बात विशेष रूप से समझने की है कि लक्ष्मी को श्री भी कहते हैं, लेकिन इन दोनों में मूलतः अंतर है। आज जबकि प्रत्येक व्यक्ति लक्ष्मी का उपासक हो गया है और सोचता है कि समस्त सुख के साधन जटाए जा सकते हैं, तो उसे इनमें फर्क समझना होगा।

लक्ष्मी का एक नाम चंचला भी है। एक स्थान पर न रुकना इसका स्वभाव है। लेकिन जिस श्री की बात आचार्य चाणक्य ने की है, वह बुद्धि की सखी है। बुद्धि की श्री के साथ गाढी मित्रता है। ये दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकतीं। महर्षि व्यास ने श्री का माहात्म्य भगवान के साथ जोड़कर किया है। उनका कहना है कि जहां श्री है, वहां भगवान को उपस्थित जानो। इस श्लोक में जिन गणों को बताया गया है उनका होना भगवान की उपस्थिति का संकेत है।

लक्ष्मी चंचला है लेकिन श्री जिसके मन या घर में प्रविष्ट हो जाती है उसे अपनी इच्छा से नहीं छोड़ती। श्री का अर्थ संतोष से भी किया जाता है। संतोष को सर्वश्रेष्ठ संपत्ति माना गया है। इस प्रकार संतोषी व्यक्ति को लक्ष्मी के पीछे-पीछे जाने की आवश्यकता नहीं होती, वह स्वयं उसके घर-परिवार में आकर निवास करती है।

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